Monday, July 11, 2016

मिट्टी और पानी

तुमसे हम यूँ दूर हुए
जैसे पानी से किनारा था 
तुम बहते रहे दरिया बन के 
हम चलते रहे किनारा करके 
बस एक बारिश का आना था 
बाड़ तेरे सीने उमड़ी
और डूब हमें फिर जाना था 
अब मिट्टी मेरी तुझमें है 
तू ऐसे ही मटमैला हुआ 
ये सब बारिश की ग़लती है 
ज़बरन हमको मिलवाना था 
कब मौसम बदले
पता नहीं
कब सूरज चमके पता नहीं
तू कब बह निकले 
पता नहीं
ज़मीं तो मेरी अपनी है 
थक कर यूँ ही बैठ जाना था 
अब बाट निहारे 
बैठी हूँ
कब बादल गरजे 
ऐंठी हूँ 
कब तेरे दिल मैं 
लहर उठे 
कब बहता दरिया 
सिहर उठे 
कब तुझमें यूँ रम जाऊँ मैं 
फिर दूर कहीं बिखर जाऊँ मैं 
हर मंज़िल तेरे सदके है 
या मूर्त मैं ढल जाना था !

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