तुमसे हम यूँ दूर हुए
जैसे पानी से किनारा था
तुम बहते रहे दरिया बन के
हम चलते रहे किनारा करके
बस एक बारिश का आना था
बाड़ तेरे सीने उमड़ी
और डूब हमें फिर जाना था
अब मिट्टी मेरी तुझमें है
तू ऐसे ही मटमैला हुआ
ये सब बारिश की ग़लती है
ज़बरन हमको मिलवाना था
कब मौसम बदले
पता नहीं
कब सूरज चमके पता नहीं
तू कब बह निकले
पता नहीं
ज़मीं तो मेरी अपनी है
थक कर यूँ ही बैठ जाना था
अब बाट निहारे
बैठी हूँ
कब बादल गरजे
ऐंठी हूँ
कब तेरे दिल मैं
लहर उठे
कब बहता दरिया
सिहर उठे
कब तुझमें यूँ रम जाऊँ मैं
फिर दूर कहीं बिखर जाऊँ मैं
हर मंज़िल तेरे सदके है
या मूर्त मैं ढल जाना था !